भारत की परंपराएँ हर त्यौहार में एक गहरी आध्यात्मिकता और भावनात्मक जुड़ाव रखती हैं। दिवाली के पांच दिवसीय पर्व की शुरुआत जिस दिन से होती है, उसे कहा जाता है – वासु बारस। यह दिन गायों और उनके बछड़ों की पूजा के लिए समर्पित होता है। वासु बारस न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि यह कृषि संस्कृति, मातृत्व और करुणा का प्रतीक भी है।
वासु बारस क्या है?
वासु बारस (या वसुबारस) मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाई जाती है। इसे “गोवत्स द्वादशी” भी कहा जाता है — ‘गोवत्स’ यानी गाय का बछड़ा। इस दिन गाय और उसके बछड़े की पूजा की जाती है क्योंकि गाय को ‘माता’ के रूप में देखा जाता है, जो हमें दूध और पोषण देती है।
हिंदू धर्म में गाय को सात माताओं में से एक माना गया है। गाय के शरीर में सभी देवी-देवताओं का वास बताया गया है। कहा जाता है कि जिस घर में गाय का सम्मान और सेवा होती है, वहाँ सुख, समृद्धि और शांति का वास होता है। वासु बारस का त्यौहार इस श्रद्धा का जीवंत उदाहरण है। इस दिन महिलाएँ गाय के बछड़े के साथ पूजा करती हैं और व्रत रखती हैं ताकि घर में सुख-समृद्धि बनी रहे और संतान दीर्घायु हो।
व्रत और पूजा विधि
वासु बारस के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करने के बाद महिलाएँ व्रत रखती हैं। घर के आंगन या मंदिर में गाय और बछड़े की मूर्ति (या वास्तविक गाय यदि उपलब्ध हो) को लाकर उनकी पूजा की जाती है। पूजा विधि में शामिल होता है:
- गाय और बछड़े को स्नान कराना
- उन्हें हल्दी, कुंकुम, फूल और चावल से सजाना
- आरती उतारना
- दूध, गुड़, फल और मिठाई का भोग लगाना
- परिवार की मंगलकामना और संतान की रक्षा के लिए प्रार्थना करना
कुछ जगहों पर महिलाएँ ‘गोवत्स द्वादशी कथा’ का पाठ भी करती हैं, जिसमें गोमाता की महिमा और इस व्रत का महत्व बताया गया है।
वासु बारस की कथा
धार्मिक मान्यता के अनुसार, वासु बारस का व्रत सबसे पहले एक पवित्र ब्राह्मणी ने किया था। उसकी कोई संतान नहीं थी, इसलिए उसने भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की। श्रीकृष्ण ने उसे वासु बारस का व्रत करने का आदेश दिया। ब्राह्मणी ने पूरी श्रद्धा से व्रत किया और परिणामस्वरूप उसे एक सुंदर पुत्र प्राप्त हुआ। तब से यह परंपरा चली आ रही है कि जो महिलाएँ वासु बारस का व्रत करती हैं, उन्हें संतान सुख और पारिवारिक सुख प्राप्त होता है।
वासु बारस और दिवाली का संबंध
वासु बारस दिवाली के पांच दिनों का पहला दिन माना जाता है। इसके बाद क्रमशः धनतेरस, रूप चौदस (नरक चतुर्दशी), लक्ष्मी पूजा (अमावस्या), गोवर्धन पूजा और भाई दूज मनाए जाते हैं। इस प्रकार, वासु बारस दिवाली की शुरुआत का प्रतीक है और यह धरती, पशु-पक्षी और जीवन के हर रूप के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है।
वासु बारस का आध्यात्मिक महत्व
वासु बारस केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि मानवता और पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का प्रतीक है। गाय हमें सिखाती है — देन ही धर्म है। वह बिना किसी स्वार्थ के दूध देती है और हमारे जीवन का आधार बनती है। आज के युग में जब इंसान प्रकृति से दूर होता जा रहा है, वासु बारस हमें यह याद दिलाता है कि हमें अपनी जड़ों और पशुधन की रक्षा करनी चाहिए।
रोचक तथ्य और कम ज्ञात बातें
- महाराष्ट्र, गुजरात, और मध्य प्रदेश में वासु बारस बड़े उत्साह से मनाई जाती है।
- इस दिन महिलाएँ गाय की आरती के बाद घर की रसोई में दूध से बनी कोई भी वस्तु नहीं बनातीं — क्योंकि यह दिन गाय को समर्पित होता है।
- वासु शब्द का अर्थ होता है — धन या समृद्धि। इसीलिए यह दिन वित्तीय समृद्धि की शुरुआत का भी प्रतीक है।
- ग्रामीण इलाकों में इस दिन गोशाला और गौशालाओं की सफाई, सजावट और गायों का श्रृंगार किया जाता है।
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