भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का दावा करने में गर्व महसूस होता है। चमचमाते मेट्रो, शानदार हाईवे, और डिजिटल इंडिया की बातें हर तरफ गूँज रही हैं। लेकिन जब आप शहरों की चमक-दमक छोड़कर गाँवों की ओर रुख करते हैं, जैसे पुणे के पास सासवड और सोनोरी गाँव, तो एक कड़वी सच्चाई सामने आती है—कचरे के ढेर, खतरनाक गड्ढों से भरी टूटी सड़कें, और बुनियादी सुविधाओं की कमी। क्या यही वह ‘विकसित भारत’ है, जिसका सपना हम देख रहे हैं?
गाँवों के प्रति प्यार और दुख का मिश्रण
मैं अक्सर देश के अलग-अलग हिस्सों में घूमती रहती हूँ, लेकिन अपने मायके—सासवड और सोनोरी—और ससुराल के गाँव रत्नागिरी के प्रति मेरा लगाव कुछ खास है। ये वो जगहें हैं, जो मेरे मम्मी-पापा और मेरे परिवार का हिस्सा हैं। लेकिन जब वहाँ की सड़कों पर प्लास्टिक की बोतलों और कचरे के ढेर दिखते हैं, या खतरनाक गड्ढों वाली सड़कें जानलेवा बन जाती हैं, तो दिल में एक टीस उठती है। ये गाँव मेरे अपने हैं, और इन्हें देखकर लगता है कि हमारी जड़ें उपेक्षा का शिकार हो रही हैं। यह दुख सिर्फ मेरा नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति का है, जो अपने गाँव से प्यार करता है और उसकी बेहतरी चाहता है।
शहर से गाँव: एक यात्रा, कई सवाल
हाल ही में पुणे के पास सासवड और सोनोरी की यात्रा मेरे लिए आँखें खोलने वाली थी। मुंबई से पिंपरी-चिंचवड़ तक का सफर शानदार एक्सप्रेसवे पर महज दो घंटे में पूरा हो गया। लेकिन पिंपरी-चिंचवड़ से सासवड तक के 35-40 किलोमीटर के रास्ते में दो घंटे लग गए। कारण? हडपसर से डोंगरगाँव घाट तक की बुरी तरह टूटी सड़कें, जिनमें खतरनाक गड्ढे जानलेवा जोखिम पैदा करते हैं। गड्ढे इतने गहरे हैं कि गाड़ी का टायर फंस जाए या इंजन ही खराब हो जाए, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। बारिश में तो हालात और बदतर हो जाते हैं, जहाँ सड़कें कीचड़ और गड्ढों का मेल बन जाती हैं। यह सिर्फ सासवड और सोनोरी की कहानी नहीं, बल्कि रत्नागिरी और भारत के हज़ारों गाँवों की हकीकत है।
चुनावी सड़कें और खोखले वादे
गाँवों में एक अजीब सा पैटर्न देखने को मिलता है। जब चुनाव नज़दीक आते हैं, तो सड़कें अचानक चमकने लगती हैं। सासवड और सोनोरी जैसे इलाकों में गड्ढे भर दिए जाते हैं, और सड़कें इतनी चिकनी हो जाती हैं कि लगता है अब सब ठीक हो गया। लेकिन चुनाव खत्म होते ही विकास गायब हो जाता है। सड़कें फिर से धूल और खतरनाक गड्ढों में तब्दील हो जाती हैं। क्या ग्रामीण जनता सिर्फ वोट बैंक भर है? क्या उन्हें स्थायी रूप से अच्छी सड़कें, स्वच्छता, और बुनियादी सुविधाएँ पाने का हक नहीं?
कचरे का ढेर: मजबूरी या लापरवाही?
सासवड, सोनोरी, और रत्नागिरी जैसे गाँवों में एक और गंभीर समस्या है—कचरा प्रबंधन की कमी। यहाँ रोज़ाना कचरा गाड़ी नहीं आती। डस्टबिन या तो हैं ही नहीं, या फिर ओवरफ्लो हो रहे हैं। सासवड में, जहाँ नई-नई बिल्डिंगें उभर रही हैं, वहाँ भी कचरा प्रबंधन की स्थिति दयनीय है। मई में जब मैं रत्नागिरी के अपने ससुराल गाँव गई, तो वहाँ भी सड़कों पर प्लास्टिक की बोतलों और कचरे के ढेर दिखे। लोग मजबूरी में कचरा सड़कों, खाली प्लॉटों, या नदियों के किनारे फेंक देते हैं। एक स्थानीय निवासी ने बताया, “हम चाहते हैं कि कचरा डस्टबिन में डालें, लेकिन जब सासवड नगरपालिका से कचरा गाड़ी हफ्ते में एक बार आए और डस्टबिन भरे हों, तो हम क्या करें?”
यह सिर्फ लोगों की आदतों का दोष नहीं। प्रशासन की लापरवाही भी उतनी ही ज़िम्मेदार है। शहरों में जहाँ रोज़ाना कचरा संग्रहण और स्वच्छता अभियान चलते हैं, वहीं सासवड, सोनोरी, और रत्नागिरी जैसे गाँवों में यह सुविधा न के बराबर है। अगर सासवड नगरपालिका सोनोरी जैसे गाँवों में नियमित कचरा गाड़ी भेजे और पर्याप्त डस्टबिन लगाए, तो लोग ज़रूर जागरूक होंगे। लेकिन जब सुविधाएँ ही नहीं होंगी, तो कचरा सड़कों पर ही फैलेगा।
गाँव: अन्नदाता का घर, पर उपेक्षा का शिकार
गाँव वही हैं, जहाँ से देश को अनाज, फल, और सब्ज़ियाँ मिलती हैं। सासवड, सोनोरी, और रत्नागिरी जैसे इलाकों में किसान दिन-रात मेहनत करता है, बारिश-धूप की परवाह किए बिना खेतों में पसीना बहाता है। लेकिन उसी गाँव में कचरा प्रबंधन की व्यवस्था नहीं है। खुले में फेंका गया कचरा, खासकर प्लास्टिक की बोतलें, मिट्टी को बंजर बनाता है, नदियों को प्रदूषित करता है, और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता है। न तो जल संरक्षण की योजनाएँ ठीक से लागू होती हैं, न ही सड़क, स्वास्थ्य, या शिक्षा की सुविधाएँ पर्याप्त हैं।
क्यों नज़रअंदाज़ किए जाते हैं गाँव?
ऐसा लगता है कि सरकार और प्रशासन की नज़र में सासवड, सोनोरी, और रत्नागिरी जैसे गाँवों का कोई खास महत्त्व नहीं। शायद इसलिए कि वहाँ आबादी कम है, और उनका ‘डेटा’ बड़े आँकड़ों में नहीं दिखता। ग्राम पंचायतों और सरपंचों तक सीमित होकर रह गया है विकास। लेकिन यहाँ भी भ्रष्टाचार और दिखावा हावी है। योजनाएँ कागज़ों तक सिमटकर रह जाती हैं, और ज़मीनी हकीकत वही ढाक के तीन पात।
गाँवों को सशक्त करना भारत को सशक्त करना है
अगर भारत को सचमुच विकसित बनना है, तो केवल मेट्रो शहरों की चमक पर ध्यान देना काफी नहीं। सासवड, सोनोरी, और रत्नागिरी जैसे गाँवों को बराबर का दर्जा और सुविधाएँ देनी होंगी। गाँव भारत की आत्मा हैं। उनकी उपेक्षा करना देश की आत्मा को कमज़ोर करना है। सरकार और स्थानीय प्रशासन को चाहिए कि वह:
- नियमित कचरा संग्रहण और पर्याप्त डस्टबिन की व्यवस्था करे।
- सड़कों की गुणवत्ता सुनिश्चित करे और खतरनाक गड्ढों का नियमित रखरखाव करे।
- जागरूकता अभियान चलाए, ताकि लोग स्वच्छता के प्रति संवेदनशील हों।
- पंचायत स्तर पर जवाबदेही तय करे, ताकि योजनाएँ कागज़ों से निकलकर ज़मीन तक पहुँचें।
निष्कर्ष: विकास का सपना सबके लिए हो
भारत की तरक्की की कहानी तभी पूरी होगी, जब सासवड, सोनोरी, और रत्नागिरी जैसे गाँवों की सड़कें कचरे और खतरनाक गड्ढों से मुक्त होंगी। जब हर गाँव में स्वच्छता, सड़क, और बुनियादी सुविधाएँ शहरों की तरह होंगी। यह समय है कि हम केवल आँकड़ों और चमक-दमक से आगे बढ़ें। गाँवों को सशक्त करना ही भारत को सशक्त करना है।


