21 गांवों की कहानी जो दो राज्यों के बीच फंसे हैं
सोचिए, आपका गांव दो राज्यों के बीच फंस जाए। एक सरकार राशन कार्ड देगी, दूसरी भी थमा देगी। दोनों आपको वोट डालने का हक भी दे दें देंगे, ताकि कोई यह न कह पाए कि भाई ‘हमने तुम्हें भुला दिया।’ इसका नतीजा? एक ही चौक पर दो राजनितिक पार्टियों के दो अलग अलग झंडे। दो अलग अलग नेता। दो अलग अलग भाषण। वाह रे लोकतंत्र! यही हकीकत है पूर्वी घाट की पहाड़ियों में बसे 21 गांवों की। जो पिछले 90 साल से कोटिया विवाद के नाम पर ओडिशा और आंध्र की खींचतान में फंसे हैं।
विवाद की शुरुआत कैसे हुई?
1936 से पहले पूरा इलाका मद्रास प्रेसीडेंसी के विशाखपटनम जिले का हिस्सा था। जंगल घने थे, इलाके का ठीक से सर्वे नहीं हुआ था। स्थानीय जमींदार, खासकर जयपुर एस्टेट, का शासन चलता था। अंग्रेजों ने सीमाओं को साफ़ करने की जरूरत कभी नहीं समझी।
1936 में जब ओडिशा एक अलग प्रांत बना, तभी विवाद की नींव रखी गई। कुछ गांव साफ-साफ कोरापुट जिले में आ गए। लेकिन कोटिया के 21 गांव फंस गए। कुछ नक्शे इन्हें ओडिशा में दिखाते थे, कुछ मद्रास में। आज़ादी तक ये गड़बड़ी दूर नहीं हुई और 1950 में जब भारत गणराज्य बना, तो सीमा विवाद के बीज पक्के हो चुके थे।
दो राज्य, एक दावा
1950 के दशक में आंध्र प्रदेश राज्य बना। इसके साथ ही उसने इन 21 गांवों पर दावा करना शुरू किया। ओडिशा ने इसका विरोध किया। उसका तर्क था कि 1952 से यहां चुनाव कराए जा रहे हैं, स्कूल चल रहे हैं और ज़मीन के पट्टे लोगों को दिए गए हैं।
आंध्र की कहानी अलग थी। वहां के नेता कहते थे कि गांव वालों की संस्कृति और बाज़ार से जुड़ाव आंध्र से है। धीरे-धीरे आंध्र ने योजनाएं चलाईं, सड़कें बनाईं और पंचायत चुनाव भी कराए। गांव वालों की नज़र में दोनों ही राज्य ‘सरकार’ बन गए। इससे सुविधाएं तो बढ़ीं, लेकिन उलझन भी उतनी ही गहरी हो गई।
अदालत का लंबा सफर
1968 में पहली बार मामला बड़ा हुआ। ओडिशा ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया और आंध्र पर अतिक्रमण का आरोप लगाया। कोर्ट ने आदेश दिया कि यथास्थिति बनी रहे। यानी कोई भी राज्य ज़मीनी हालात न बदले। ये आदेश आज भी लागू है।
2006 में कोर्ट ने एक अहम बात कही। उसने साफ़ किया कि राज्य की सीमाओं पर स्थायी फैसला करना उसका काम नहीं है। ये केवल संसद कर सकती है। इसके बाद विवाद अदालत से निकलकर राजनीति के पाले में चला गया।
चुनाव, योजनाएं और दोहरी सरकारें
यथास्थिति का मतलब है कि दोनों राज्य गांवों को अपना मानते हैं। ओडिशा यहां बूथ लगाता है, आंध्र भी लगाता है। ओडिशा राशन कार्ड बांटता है, आंध्र भी। स्कूल, आंगनवाड़ी, स्वास्थ्य केंद्र, यहां तक कि पुलिस चौकियां, सबके डुप्लीकेट।
2021 में आंध्र ने और आगे बढ़ते हुए तीन गांवों में पंचायत चुनाव कराए। ओडिशा ने विरोध किया, सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया, लेकिन चुनाव नहीं रोके। संदेश साफ था। जब तक संसद कदम नहीं उठाती, ये अजीब स्थिति चलती रहेगी।
ज़मीन पर जिंदगी
करीब चार हज़ार लोग इन गांवों में रहते हैं। ज़्यादातर कोंध आदिवासी हैं, जो खेती और जंगल पर निर्भर हैं। उनके लिए दो सरकारों का मतलब दो वादे, लेकिन अक्सर अधूरी डिलीवरी।
सोचिए, किसी के पास दो आधार कार्ड हों, दो सरकारें एक ही चौक पर झंडा फहराएं। कुछ परिवार दोनों राज्यों से पेंशन लेते हैं, तो कुछ छूट जाते हैं क्योंकि दोनों सरकारें पक्का नहीं कर पातीं कि ज़िम्मेदारी किसकी है।
ये ‘दोहरी पहचान’ लोगों को असमंजस में डालती है। गांव वाले पूछते हैं कि हम आखिर किसके हैं?
दोनों राज्य पीछे क्यों नहीं हटते?
यह सिर्फ 21 गांवों की बात नहीं है। कोटिया क्षेत्र पूर्वी घाट के खनिज समृद्ध इलाके में आता है। दोनों राज्यों के लिए यहां पकड़ रखना रणनीतिक और आर्थिक रूप से अहम है।
ओडिशा के लिए ये इतिहास और सम्मान का सवाल है। वह दशकों से यहां संस्थाएं चला रहा है। अब छोड़ना अपने आदिवासी नागरिकों से मुंह मोड़ने जैसा होगा।
आंध्र के लिए तर्क सांस्कृतिक जुड़ाव और राजनीतिक ताक़त का है। सीमा पर बसे समुदायों के साथ खड़े रहना उसकी राजनीति का हिस्सा है।
केंद्र की चुप्पी
सच ये है कि केवल संसद ही इस विवाद को हल कर सकती है। लेकिन दशकों से दिल्ली की सरकारें चुप्पी साधे बैठी हैं। राज्य सीमा विवाद राजनीतिक रूप से संवेदनशील होते हैं और शायद ही कोई नेता एक पक्ष को नाराज़ करने का जोखिम उठाना चाहता है।
नतीजा ये है कि स्थिति जस की तस है। सुप्रीम कोर्ट याद दिलाता है, कमेटियां बनती हैं, योजनाएं आती हैं, लेकिन असली सवाल है की सीमा कहां है?
कोटिया हमें क्या सिखाता है
कोटिया सिर्फ एक स्थानीय विवाद नहीं है। ये दिखाता है कि आज़ादी के इतने साल बाद भी हम औपनिवेशिक नक्शों की गड़बड़ियों से जूझ रहे हैं। ये हमारे संघीय ढांचे की सीमा भी बताता है कि कोर्ट सीमा तय नहीं कर सकता। संसद अक्सर चाहती नहीं। और बीच में लोग ही कीमत चुकाते हैं।
देश में और भी कई सीमा विवाद हैं जिनका कोई ठोस समाधान अब तक नहीं निकला। कर्नाटक और महाराष्ट्र का बेलगावी विवाद हो या असम और मिज़ोरम की सीमा तनातनी। लेकिन कोटिया का मामला अलग है। जहां सरकार कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने जैसी बड़ी कार्रवाई कर सकती है, वहीं कोटिया जैसे छोटे लेकिन गंभीर विवाद को सुलझाने में नाकाम रही है। साफ है कि राजनीतिक स्वार्थों के कारण पूरे गांव को अनिश्चितता और धुंध में छोड़ दिया गया है।
आगे का रास्ता
हल क्या हो सकता है? या तो संसद सीमा तय करे, या फिर दोनों राज्य मिलकर संयुक्त प्रशासन चलाएं और स्वामित्व से ज़्यादा विकास पर ध्यान दें।
जब तक ऐसा नहीं होता, गांव वाले दोहरे राशन कार्ड और दोहरे त्योहारों के साथ जीते रहेंगे। उनकी कहानी नक्शों की रेखाओं की नहीं, बल्कि उन ज़िंदगियों की है जो 90 साल से एक ऐसे विवाद में फंसी हैं, जिसे कोई खत्म करना नहीं चाहता।
कोटिया विवाद की समयरेखा (ओडिशा–आंध्र प्रदेश)
| वर्ष / अवधि | घटनाक्रम |
| 1936 | ओडिशा एक अलग प्रांत बना। कोटिया के 21 गांव सीमा पर उलझे रहे। |
| 1953 | आंध्र प्रदेश बना। सीमा विवाद उभरा। |
| 1956 | राज्यों का पुनर्गठन हुआ। कोटिया ओडिशा के कोरापुट जिले में रहा, पर आंध्र ने दावा किया। |
| 1968 | दोनों राज्यों ने गांवों में प्रशासनिक कामकाज शुरू किया। |
| 1980 का दशक | सुप्रीम कोर्ट में मामला गया। नतीजा नहीं निकला। |
| 2006 | आंध्र ने गांवों में कल्याण योजनाएं शुरू कीं, ओडिशा ने विरोध किया। |
| 2018 | दोनों राज्यों ने अलग-अलग पंचायत चुनाव घोषित किए। सुप्रीम कोर्ट ने यथास्थिति बनाए रखने को कहा। |
| फरवरी 2021 | आंध्र ने 13 गांवों में पंचायत चुनाव कराए। ओडिशा ने विरोध जताया। |
| मार्च–अप्रैल 2021 | ओडिशा ने याचिका दाखिल की। आंध्र ने कहा गांव वालों की मांग थी। |
| 2022–23 | दोनों राज्य कल्याण योजनाएं चलाते रहे। सुप्रीम कोर्ट में केस लंबित रहा। |
| वर्तमान (2025) | विवाद जस का तस। गांव वाले दोहरी पहचान के साथ जी रहे हैं। |


