मनरेगा से हाल ही में 27 लाख मजदूरों के नाम हटाए जाने का मुद्दा पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया है। 10 अक्टूबर से 14 नवंबर के बीच इतने बड़े पैमाने पर डाटा डिलीशन ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर इतने लोगों को प्रणाली से बाहर क्यों किया गया। सरकारी पक्ष का कहना है कि यह प्रक्रिया केवल सत्यापन और डेटा साफ करने का हिस्सा है। सरकार e KYC, आधार आधारित भुगतान और NMMS ऐप के जरिए श्रमिकों की पहचान के डिजिटल मिलान पर विशेष जोर दे रही है ताकि नकली और डुप्लिकेट जॉब कार्ड हटाए जा सकें। लेकिन वास्तविकता यह है कि इस तकनीकी प्रक्रिया में कई खामियां सामने आई हैं। कुछ क्षेत्रों में NMMS ऐप में गलत तस्वीरें अपलोड हो रही हैं, कुछ जगह दोपहर की तस्वीरें सिस्टम में नही दिखती, और कई बार मजदूरों की संख्या और जेंडर विवरण में भी गड़बड़ी पाई गई है। इन तकनीकी कमियों के कारण वास्तविक मजदूरों को भी डिलीशन सूची में डाल दिया गया है।
रिपोर्टों में यह भी सामने आया है कि हटाए गए लाखों मजदूरों में से लगभग छह लाख ऐसे हैं जिन्होंने पिछले तीन वर्षों में कम से कम एक दिन काम किया था। यह आकड़ा चिंताजनक है क्योंकि इससे साफ होता है कि प्रक्रिया केवल फर्जी नाम हटाने तक सीमित नहीं रही है, बल्कि सक्रिय मजदूर भी प्रभावित हुए हैं। यह स्थिति ग्रामीण इलाकों में उन परिवारों के लिए बड़ी समस्या बन सकती है, जो मनरेगा की आय पर निर्भर रहते हैं। डिजिटल प्रक्रियाओं का उद्देश्य सिस्टम को पारदर्शी बनाना है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी पहुंच की सीमाओं और नेटवर्क समस्याओं के कारण कई मजदूर अनजाने में सिस्टम से बाहर हो रहे हैं।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि हाल के वर्षों में जॉब कार्ड डिलीशन एक बड़ी प्रवृत्ति बन चुकी है। केवल वर्ष 2022-23 में ही पांच करोड़ से अधिक जॉब कार्ड हटाए गए थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि ‘डेटा साफ-सफाई’ का अभियान बड़े पैमाने पर चल रहा है और अब इसकी रफ्तार और तेज हो गई है। सवाल यह है कि क्या यह प्रक्रिया केवल पारदर्शिता बढ़ाने के लिए है, या कहीं यह असल मजदूरों की भागीदारी कम करने का अनजाना साधन बनती जा रही है। पंचायत स्तर पर समीक्षा की व्यवस्था तो है, लेकिन कई मजदूरों को इस प्रक्रिया की जानकारी ही नहीं होती और न ही उनके पास अपने हटाए गए जॉब कार्ड वापस सक्रिय कराने का आसान तरीका उपलब्ध है।
इतने बड़े पैमाने पर नाम हटाना मनरेगा के मूल उद्देश्य पर भी सवाल खड़ा करता है, क्योंकि यह योजना ग्रामीण भारत को रोजगार की गारंटी देने के लिये बनी थी। यदि तकनीकी समस्याओं और प्रशासनिक प्रक्रियाओं के कारण वास्तविक मजदूर ही सिस्टम से बाहर होने लगें, तो यह योजना कमजोर वर्गों के प्रति अन्याय का रूप ले सकती है। वर्तमान स्थिति यह इशारा कर रही है कि डेटा सुधार और मजदूरों की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाना बेहद जरूरी है। अगर प्रक्रियाएं पारदर्शी, सरल और मानव केंद्रित नहीं होंगी, तो मनरेगा की विश्वसनीयता और उपयोगिता दोनों प्रभावित होंगी। इसलिए नीति निर्माताओं को यह सुनिश्चित करना होगा कि तकनीक सुधार का माध्यम बने, बाधा नहीं।
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