गणपति बप्पा… मोरया!

मंगलमूर्ति… मोरया!

सुना? जैसे ही ‘गणपति बप्पा’ कहा, मुंह से खुद-ब-खुद ‘मोरया’ निकल पड़ा। महाराष्ट्र और गणपति का रिश्ता बेहद गहरा और अनोखा है। अगर किसी भारतीय या विदेशी से भी पूछा जाए कि महाराष्ट्र में कौन से त्योहार पर घूमना चाहोगे, तो जवाब यही होगा – गणेशोत्सव! यहां का गणेशोत्सव है ही इतना खास। इन दिनों घरों में बप्पा विराजमान होते हैं, लेकिन असली धूम-धाम तो सार्वजनिक गणेशोत्सव में देखने को मिलती है।

गणपति के आगमन के साथ मंडपों को कैसे भूल सकते हैं? जो मंडल सार्वजनिक गणपति की स्थापना करते हैं, उनके लिए मंडप एक महीने का घर बन जाता है। यहां रहना, चाय-नाश्ता, गपशप, काम और सोना-जागना सब यहीं होता है। सबसे खास बात, इस दौरान कोई क्षत्रिय नहीं, कोई ब्राह्मण नहीं, कोई चमार नहीं, कोई बनिया नहीं, सब बस बप्पा के भक्त हैं। जाति-पात का सारा भेदभाव भूलकर बस एक ही जुनून रहता है, उत्सव को धूमधाम से मनाना। लेकिन ये सब कैसे संभव हुआ? रोजमर्रा की जिंदगी में जाति, आरक्षण के झंझटों में उलझे हम लोग गणपति के मंडप में इतने एकजुट कैसे हो जाते हैं? ये इतना आसान नहीं था! चलिए, इस सार्वजनिक गणेशोत्सव की जड़ों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं।

गणेशोत्सव की परंपरा छत्रपति शिवाजी महाराज के समय से ही चली आ रही है। पेशवाओं ने भी गणराया के भक्त होने के नाते इस परंपरा को बरकरार रखा। महाराष्ट्र में सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत पुणे से हुई, ये बात सही है। लेकिन इसकी शुरुआत आखिर किसने की, इस पर इतिहासकारों के दो अलग-अलग मत हैं।

तिलक का योगदान और इससे पहले की कहानी

लोकमान्य तिलक ने ब्राह्मण-गैर ब्राह्मण के झगड़े को दरकिनार कर सभी हिंदुओं को एकजुट करने और स्वतंत्रता संग्राम की जागरूकता फैलाने के लिए सार्वजनिक गणेशोत्सव का मंच तैयार किया, ये हम सब जानते हैं। मगर इससे पहले, 1892 में श्रीमंत भाऊसाहेब लक्ष्मण जावळे, यानी भाऊसाहेब रंगारी ने इसे सार्वजनिक उत्सव का रूप दिया, ऐसा कुछ इतिहासकार मानते हैं। तिलक ने अपने अखबार ‘केसरी’ के जरिए इस उत्सव को बढ़ावा दिया, ऐसा भी कुछ जानकारों का कहना है।

भले ही भाऊसाहेब रंगारी ने सार्वजनिक गणेशोत्सव की नींव रखी हो, लेकिन इसे व्यापक स्वरूप तिलक ने ही दिया। भाऊसाहेब ने मंदिर की बुनियाद रखी, और तिलक ने उस पर शिखर चढ़ाया। महाराष्ट्र में गणेशपूजा शिवाजी महाराज के दौर से चली आ रही थी, लेकिन तिलक ने जनता को गणेशपूजा और गणेशोत्सव के बीच का फर्क समझाया। गणेशपूजा व्यक्तिगत होती है और शारीरिक चक्रों से जुड़ी है, वहीं सार्वजनिक गणेशोत्सव सामाजिक एकता का प्रतीक है। जैसे घर में बप्पा के आते ही परिवार के झगड़े भूलकर सब उनकी पूजा में जुट जाते हैं, वैसे ही सार्वजनिक गणेशोत्सव में समाज के तनाव भुलाकर एकजुटता दिखती है।

स्वतंत्रता संग्राम और गणेशोत्सव

सन 1800 के अंत में तिलक ने देखा कि अंग्रेज हममें फूट डालकर हिंदुओं को बांटने की कोशिश कर रहे हैं। इसके जवाब में उन्होंने गणेशोत्सव और शिवजयंती को सार्वजनिक मंच बनाया, ताकि लोगों में एकता बनी रहे। इसके लिए बड़े-बड़े मंडप बनाए गए, विशाल गणपति मूर्तियां स्थापित की गईं। थोड़े ही समय में इस उत्सव का इस्तेमाल राष्ट्रभक्ति के लिए होने लगा। मंडपों में देशभक्ति के गीत गाए गए, युवाओं में जोश भरने वाले भाषण हुए। आमतौर पर भाषण के लिए अंग्रेजों की इजाजत चाहिए होती थी, लेकिन गणेशोत्सव एक त्योहार था, इसलिए इसमें कोई रोक-टोक नहीं थी।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदुओं पर जमावबंदी थी, अंग्रेजों के खिलाफ खुलेआम कुछ करना मुमकिन नहीं था। लेकिन सार्वजनिक गणेशोत्सव ने हिंदुओं को बिना किसी बहाने के एकजुट होने का मौका दिया। इस एकता से राष्ट्रप्रेम जागा, जाति-पात भुलाकर सब भारतीय बने और अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए। ये हलचल धीरे-धीरे अंग्रेजों की नजर में आई। उन्हें लगा कि अगर यही हाल रहा तो उनकी ‘बांटो और राज करो’ की योजना असफल हो सकती है। नतीजा – तिलक को भड़काऊ भाषण और देशद्रोह के आरोप में जेल हुई।

तिलक के बाद का सफर

शुरुआत में उत्सव खत्म होने के बाद तिलक ‘केसरी’ में इसके शांतिपूर्ण आयोजन के लिए आभार जताते और मेलों-देखावों की तारीफ करते। अगर कुछ गलत दिखता, तो कड़ी टिप्पणी भी करते और सुधार की कोशिश भी। लेकिन उनकी गिरफ्तारी के बाद इसमें रुकावटें आईं। जेल से रिहा होने के बाद भी उन्हें भाषण पर पाबंदी लगाई गई। फिर भी, ये उत्सव राष्ट्रवादी क्रांति का जरिया बना रहा।

कितनी कमाल की बात है ना? 1900 में अंग्रेजों को जो समझ आया, वो आजादी के 75 साल बाद भी कायम है। 1893 से चली आ रही इस एकता की संस्कृति को महाराष्ट्र ने संभाल कर रखा है। भारतीयों ने इसे न सिर्फ जिंदा रखा, बल्कि बढ़ाया भी। अब ये उत्सव सिर्फ पुणे, मुंबई या महाराष्ट्र तक सीमित नहीं रहा। भारत से लेकर सात समुद्र पार तक फैल गया। जो अंग्रेज इस त्योहार को रोकना चाहते थे, उनकी धरती पर भी आज ये मनाया जाता है!

बदलता स्वरूप और विस्तार

सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत भले ही किसने की हो, मकसद एक ही था। भावना शुद्ध और निस्वार्थ थी। अगर किसी चीज का उद्देश्य नेक हो, तो शुरुआत किसने की, इस पर विवाद क्यों?

आज महाराष्ट्र में अनगिनत मंडल इस परंपरा को निभा रहे हैं। इसकी शुरुआत कब, क्योें, कैसे और किसने की इस विवाद भुलाते है। वक्त के साथ इसका स्वरूप भी बदला। पहले सामाजिक एकता और राष्ट्रीय क्रांति लक्ष्य थे, लेकिन अब लोककलाओं का प्रचार, जरूरतमंदों की मदद, सामाज में जागरूकता, रक्तदान और अंगदान जैसे कार्य भी इसमें शामिल हैं। ये बदलाव वाकई काबिले-तारीफ है।

महाराष्ट्र के बाद गोवा, कर्नाटक, गुजरात, तमिलनाडु, तेलंगाना और अन्य राज्य भी इस विरासत को संजोए हुए हैं। अंग्रेजों के बावजूद हमारी एकता बनी रही, ये गर्व की बात है। यही एकता की संस्कृति हमेशा बनी रहे!

बोलो, गणपति बप्पा मोरया!

Share.
Leave A Reply

Exit mobile version