एक समय था जब भारतीय माता-पिता स्कूल चुनते समय सिर्फ एक बात पर ध्यान देते थे—बेटा पढ़ाई में अच्छा हो जाए, तो ज़िंदगी संवर जाएगी। लेकिन आज समय बदल रहा है। खासकर मुंबई जैसे महानगरों में अब माता-पिता सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि समग्र विकास को प्राथमिकता देने लगे हैं। इसका एक बड़ा संकेत है ऐसे स्कूलों की बढ़ती मांग जो शिक्षा और खेल—दोनों को बराबर महत्व देते हैं।
मुंबई के मध्यवर्गीय इलाकों जैसे दादर, माटुंगा, माहिम, परेल, बांद्रा और सांताक्रूज़ में कुछ स्कूलों ने इस सोच को अपनाया है। ये स्कूल केवल अच्छे बोर्ड के अंक या 90% से ज़्यादा रिज़ल्ट के लिए नहीं जाने जाते, बल्कि इसलिए पहचाने जाते हैं क्योंकि वहां बच्चे खेल मैदान से लेकर क्लासरूम तक अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकते हैं।
शिवाजी पार्क हाई स्कूल, दादर में पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता बताते हैं कि यहां हर हफ्ते स्पोर्ट्स पीरियड सिर्फ नाम के लिए नहीं होता। बच्चों को फुटबॉल, क्रिकेट, कबड्डी, खो-खो जैसे भारतीय खेलों में भी बढ़ावा मिलता है। इसके साथ-साथ यहां एनसीईआरटी और एसएससी सिलेबस की पढ़ाई भी काफी ठोस तरीके से कराई जाती है।
माटुंगा का श्री स्कॉटिश स्कूल हो या माहिम का कैनॉसा हाई स्कूल—इन जगहों पर बैडमिंटन, स्केटिंग, जिमनास्टिक और स्विमिंग को एक कोर सब्जेक्ट की तरह लिया जाता है। यही वजह है कि यहां से निकलने वाले बच्चे न सिर्फ अच्छे इंजीनियर या डॉक्टर बनते हैं, बल्कि राज्य और राष्ट्रीय स्तर के एथलीट भी बनकर उभरते हैं।
बांद्रा का एवीएम हाई स्कूल (Agarwal Vidya Mandir) और सांताक्रूज़ का विले पार्ले के पास का हंसराज मोरारजी स्कूल जैसे संस्थान खेलों को पढ़ाई के बराबर महत्व देते हैं। इन स्कूलों की नीति है कि हर बच्चा किसी न किसी फिजिकल एक्टिविटी में हिस्सा ले। यह सिर्फ उनके स्वास्थ्य के लिए नहीं, बल्कि टीमवर्क, अनुशासन और आत्मविश्वास जैसे जीवन कौशल को भी बढ़ाने का जरिया बनता है।
मुंबई के इन इलाकों में मध्यमवर्गीय परिवार अधिक रहते हैं। ऐसे में स्कूल फीस का भी ध्यान रखा जाता है। इन स्कूलों की फीस इंटरनेशनल स्कूल्स की तुलना में काफी कम है, लेकिन गुणवत्ता में कोई समझौता नहीं होता। पढ़ाई की गुणवत्ता अच्छी होती है और साथ में खेल के लिए प्रोफेशनल कोच, स्पोर्ट्स गियर और रेगुलर इवेंट्स की व्यवस्था भी होती है।
इस ट्रेंड का असर धीरे-धीरे पेरेंट्स की सोच पर भी पड़ रहा है। पहले जहां माता-पिता चाहते थे कि बच्चा सिर्फ मेडिकल या इंजीनियरिंग की लाइन में जाए, वहीं अब वे उसे स्पोर्ट्स में करियर बनाने की आज़ादी भी देने लगे हैं। इसका एक उदाहरण है माहिम की साक्षी पटेल, जो अंडर-14 टेबल टेनिस चैंपियन रह चुकी हैं और साथ ही एसएससी बोर्ड में 92% अंक भी हासिल किए हैं। साक्षी के स्कूल ने उसे स्पोर्ट्स और पढ़ाई दोनों में संतुलन बनाने की पूरी आज़ादी दी।
कई स्कूलों ने अब खेलों को सिर्फ एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी नहीं माना, बल्कि टाइमटेबल में इसे शामिल कर लिया है। वीकली टूर्नामेंट, इंटरस्कूल स्पर्धाएं, और प्रोफेशनल लेवल की कोचिंग—ये सब अब आम बात होती जा रही हैं। वहीं पढ़ाई में भी बोर्ड परीक्षा की तैयारी, प्रैक्टिकल वर्क, डिजिटल लर्निंग और मेंटल हेल्थ सपोर्ट जैसी आधुनिक तकनीकें इस्तेमाल की जा रही हैं।
परेल के केईएम हाई स्कूल में हाल ही में एक ‘स्पोर्ट्स + साइंस’ प्रोजेक्ट शुरू किया गया है, जहां बच्चों को बायोलॉजी और फिजिक्स को खेलों के ज़रिए सिखाया जाता है। जैसे कि क्रिकेट बॉल की गति से न्यूटन के लॉज समझना या बैडमिंटन खेलते समय शरीर के मसल्स की स्ट्रक्चर जानना। यह तरीका बच्चों को न सिर्फ़ ज्ञान देता है, बल्कि उन्हें सीखने की प्रक्रिया में रूचि भी दिलाता है।
इन स्कूलों की एक और खासियत है—लड़कियों के खेलों में बराबरी से भागीदारी। अब कबड्डी, फुटबॉल, और ताइक्वांडो में लड़कियां भी मैदान में दम दिखा रही हैं। लड़कियों के लिए स्पेशल कोच और वीकेंड कैंप्स रखे जाते हैं, ताकि वे भी आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी बन सकें।
एक अध्ययन के मुताबिक, जो बच्चे खेलों में सक्रिय रहते हैं, उनका अकादमिक परफॉर्मेंस भी बेहतर होता है। खेल तनाव कम करते हैं, एकाग्रता बढ़ाते हैं, और बच्चों को अनुशासित बनाते हैं। यही वजह है कि अब मुंबई के स्कूल पढ़ाई और खेल के बीच एक नई साझेदारी बना रहे हैं—जो भविष्य के लिए बेहद जरूरी है।
मुंबई के ये स्कूल उस सोच को बदल रहे हैं जिसमें शिक्षा का मतलब सिर्फ किताबों की दुनिया था। आज बच्चे मैदान में दौड़ते हैं, पसीना बहाते हैं, और फिर क्लास में आकर गणित के सवाल भी हल करते हैं। यही है असली शिक्षा—शरीर और मन दोनों का विकास।

