सोचिए, वो रात कैसी रही होगी…26 नवंबर 2008, रात के ठीक 9 बजकर 21 मिनट। सीएसटी स्टेशन पर खड़े लोग। अचानक गोलियों की तेज़ आवाज़ें। लोग चीखते-चिल्लाते इधर-उधर भाग रहे हैं। प्लेटफॉर्म पर खून की लकीरें बन रही हैं। दो नौजवान, हाथों में AK-47 लिए, बिना रुके फायर करते जा रहे हैं। ये कोई फिल्म का सीन नहीं था। ये था हिंदुस्तान पर अब तक का सबसे बेरहम हमला। 10 लड़कें। ये एक ठंडे दिमाग वाली साजिश की कहानी है, जो सालों से रची जा रही थी। आइए परदे के पीछे चलते हैं।

पंजाब के गरीब गांवों से चुने गए थे ये दस लड़के – अजमल कसाब, इस्माइल खान, अबू उमर, बाबर इमरान… उम्र महज 21 से 25 साल। 18 महीने की ट्रेनिंग। मिशन सिर्फ एक – “मरना और मारना”। उनके हैंडलर ने कहा था, “तुम फिदायीन हो, जन्नत तुम्हारा इंतज़ार कर रही है। और हाँ… अगर पकड़े गए तो अपनी माँ का नाम तक मत बताना।” हर लड़के को फेक भारतीय आईडी दी गई – अजमल बना “समीर चौधरी, हैदराबाद”, कोई बना “नरेंद्र वर्मा, बेंगलुरु” – ताकि दुनिया बोले कि हमला अंदर से हुआ।

22 नवंबर 2008, कराची की एक गुप्त खाड़ी से ये 10 लड़के नाव पर सवार हुए। 8 AK-47, 10 किलो RDX, ग्रेनेड, सैटेलाइट फोन सब साथ था। रास्ते में भारतीय मछली ट्रॉलर “कुबेर” को हाईजैक किया। कप्तान अमर सिंह सोलंकी ने मना किया तो गोली मार दी और लाश समुद्र में फेंक दी। 26 नवंबर की शाम मुंबई की चमचमाती लाइटें दूर से दिखने लगीं। GPS पर लोकेशन पहले से फीड थी – मच्छीमार कॉलोनी। चार टीमें उतरीं: CST, ताज, ओबरॉय-ट्राइडेंट और नरीमन हाउस – वो जगह खास तौर पर चुनी गई थी क्योंकि वहाँ यहूदी रहते थे।

पाकिस्तान में एक कंट्रोल रूम था। वहाँ 6-7 लश्कर कमांडर 24 घंटे बैठे थे। स्क्रीन पर Google Earth, ताज-ओबरॉय के फ्लोर प्लान, लाइव न्यूज़ चैनल। हर आतंकी के पास हैंडसेट। कंट्रोल रूम से आवाज़ आती – “ताज में NSG ऊपर आ रही है, लाइब्रेरी की तरफ जाओ”, “ओबरॉय में लोग रेस्तरां में छिपे हैं, ग्रेनेड फेंको”, “नरीमन हाउस में बच्चा रो रहा है, उसे चुप कराओ… फिर सबको मारो”। वो लोग लाइव डायरेक्टर की तरह थे और हमारे जवान अंधेरे में लड़ रहे थे।

इन सबकी रेकी की थी एक शख्स – डेविड कोलमैन हेडली। 2006-2008 में 7 बार मुंबई आया। ताज में रुका, कैमरों की पोजीशन नोट की, CST पर भीड़ का टाइम चेक किया, नरीमन हाउस चुना क्योंकि हाफिज सईद को इजरायल से नफरत थी, बदवार पार्क में लैंडिंग पॉइंट फाइनल किया। सब कुछ वीडियो बनाकर भेज दिया। बाद में अमेरिका ने उसे पकड़ा, पर भारत को नहीं सौंपा।

और हम सो रहे थे। RAW को अगस्त 2008 से पता था कि समुद्री रास्ते से हमला हो सकता है। 18 नवंबर को अलर्ट आया – “कराची से नाव निकली है”। लेकिन 24 नवंबर को अलर्ट हटा दिया गया – “कन्फर्मेशन नहीं है”। मुंबई पुलिस के पास पूरे शहर के लिए सिर्फ 6 बुलेटप्रूफ जैकेट थे।

26/11 में हीरो सिर्फ वे नहीं जिनके हाथ में गन थी — नेतृत्व, समन्वय, सूचना प्रवाह, एरिया कंट्रोल, रेस्क्यू — सबकी वजह से नुकसान सीमित रहा। कुछ शहीद हुए, कुछ बचे, लेकिन सबने जोखिम उठाया।

हेमंत करकरे (एटीएस प्रमुख)
ताज, ओबेरॉय और बाकी हमलों की शुरुआती रिपोर्ट मिलते ही ऑपरेशन की कमान संभाली। वो खुद फील्ड में निकले, ताज़ा इनपुट लेते रहे, रास्ते में अशोक कामटे और विजय सालसकर के साथ टेररिस्ट्स को इंटरसेप्ट करने गए, वहीं गोलीबारी में शहीद हुए। उन्होंने कुर्सी पर बैठकर आदेश नहीं दिए — सामने से लड़े।

अशोक कामटे (अतिरिक्त पुलिस आयुक्त, ईस्ट ज़ोन)
शूटआउट की दिशा, वायरलेस इनपुट और टीम मूवमेंट्स को खुद कोऑर्डिनेट किया। हमलावरों का पीछा करते हुए कामा अस्पताल की ओर बढ़े। उनके पास सामरिक निर्णय क्षमता थी — वो नेतृत्व में थे, सिर्फ फायरिंग नहीं कर रहे थे। मुठभेड़ में शहीद हुए।

विजय सालसकर (एटीएस अधिकारी)
मुंबई पुलिस के सबसे सटीक शूटर माने जाते थे। वायरलेस पर लोकेशन मिलते ही उन्होंने टेररिस्ट्स को रोकने की रणनीति बनाई और टीम को लीड किया। कमांड रोल और टैक्टिकल गन-फाइट — दोनों साथ। उसी इंटरसेप्शन में शहीद।

तुकाराम ओंबले (हेड कॉन्स्टेबल)
कसाब को जिंदा पकड़ने का पूरा श्रेय इन्हें जाता है। सिर्फ लाठी लेकर आगे बढ़े, AK-47 की बौछार झेली, लेकिन कसाब को पकड़ने के लिए उसे जकड़कर रखा। ओंबले की मौत के बदले देश को जिंदा सबूत मिला — पूरी जांच उसी पर टिक गई।

सदानंद दाते (डीसीपी, कामा अस्पताल ऑपरेशन)
कामा अस्पताल के अंदर फंसे लोगों को निकालना उनकी प्राथमिकता थी। बेहद सीमित संसाधनों और जानकारी में टीम को अंदर ले गए। ग्रेनेड और गोलीबारी में बुरी तरह घायल हुए, लेकिन कई जिंदगियां बचीं। ये “अटैक रेस्पॉन्स” नहीं, “रिस्क्ड रेस्क्यू” था।

राजवर्धन सिंह (आईपीएस अधिकारी)
ज़मीन पर रिस्पॉन्स फोर्सेज की तैनाती, कॉर्डनिंग, पब्लिक रूट्स सील, रिइनफोर्समेंट और इंटेल पास-ऑन — ये सब उन्होंने सम्हाला। उनका काम गन चलाना नहीं, शहर को नियंत्रण में रखना था, ताकि नुकसान और न बढ़े। बिखरी पुलिस मशीनरी को उन्होंने संगठित किया।

प्रदीप सावंत (डीसीपी)
कोलाबा–नरीमन हाउस–ताज सर्किट में पुलिस मूवमेंट्स, बैरिकेडिंग, भीड़ हटाना, मीडिया-रूट कंट्रोल और प्रारंभिक रेस्पॉन्स का समन्वय किया। फील्ड कम्युनिकेशन की रीढ़ वही थे — बिना इस काम के NSG आगे बढ़ ही नहीं पाते।

सय्यद ज़ैदी (सीनियर इंस्पेक्टर)
शुरुआती घंटों में हमला-प्रभावित इलाकों में पुलिस टीमों को निर्देश, बचे हुए नागरिकों को बाहर निकालना, बिल्डिंग्स को खाली कराना और एरिया सिक्योर करना — उनका रोल ऑपरेशनल ग्राउंड सपोर्ट था। फ्रंटलाइन फायरिंग नहीं, लेकिन फील्ड स्टेबिलाइज़ेशन बेहद महत्वपूर्ण था।

हम उनके साथ हैं। हमेशा। हम भूलेंगे नहीं। हम लड़ेंगे। और जीतेंगे। जय हिंद।

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Journalist, News Writer, Sub-Editor

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