जब भी भारत की आज़ादी की बात होती है, तो सबसे पहले नाम याद आते हैं—भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, सरदार वल्लभभाई पटेल और वे अन्य महान व्यक्ति, जिन्हें पूरा भारत और लगभग पूरी दुनिया जानती है। लेकिन इनमें कुछ ऐसे क्रांतिकारी भी शामिल हैं, जिनका योगदान उतना ही महत्वपूर्ण था, जितना बड़े-बड़े क्रांतिकारियों का।
भारत का तिरंगा लहराने और ब्रिटिश राज के खिलाफ जंग लड़ने में कई ऐसे वीर भी थे, जिन्हें शायद इतिहास के पन्नों में जगह नहीं मिली। स्वतंत्रता संग्राम में अनगिनत गुमनाम नायकों ने अपना खून-पसीना बहाया—जैसे एक आदिवासी योद्धा, एक किताब बेचने वाला, एक शायर और एक 17 साल की लड़की।
इनके बलिदान ने भारत को आज़ादी दिलाने में अहम भूमिका निभाई, फिर भी स्कूल की किताबों में इनके नाम शायद ही मिलते हैं। आइए, इस स्वतंत्रता दिवस पर इन वीरों के इतिहास और कहानियों को जानें। इन स्वतंत्रता सेनानियों के किस्से आज भी हम भारतीयों को जोश, गर्व और प्रेरणा देते हैं।
वीर सुरेंद्र साय: जंगल का अजेय योद्धा (1809-1884)
बहुत कम लोगों को ये पता होगा की 1857 की क्रांति से पहले भी कोई अंग्रेजों से भिड़ रहा था। सुरेंद्र साय—जिनकी कहानी 1809 से शुरू होती है। उनका जन्म ओडिशा के संबलपुर में हुआ। वे चौहान वंश के आदिवासी राजकुमार थे। उनके पिता, महाराजा साय, एक सम्मानित शासक थे। लेकिन 1827 में पिता की मृत्यु के बाद अंग्रेजों की ‘हड़प नीति’ ने उनका राज्य छीन लिया। अंग्रेजों ने एक कठपुतली शासक बैठाया। इससे स्थानीय जनजातियाँ भड़क उठीं। इसलिए, सुरेंद्र ने विद्रोह का बिगुल बजाया।

1830 के दशक में सुरेंद्र ने जनजातियों को एकजुट किया। 1840 में अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डाल दिया। लेकिन जेल में भी उनकी लोकप्रियता बढ़ती रही। 1857 में, जब पहली स्वतंत्रता क्रांति भड़की, अंग्रेज डर गए। उन्हें लगा कि सुरेंद्र जेल में रहे, तो विद्रोह और फैलेगा। इसलिए, उन्हें रिहा किया गया। रिहाई के बाद, सुरेंद्र ने जंगलों में गुरिल्ला युद्ध शुरू किया। घने जंगलों और पहाड़ों का फायदा उठाया। स्थानीय जमींदारों और कंध जनजातियों को साथ लिया। फिर, 20 साल तक अंग्रेजों को चैन नहीं लेने दिया।
1862 में अंग्रेजों ने आत्मसमर्पण पर माफी का वादा किया। सुरेंद्र ने भरोसा किया, लेकिन धोखा हुआ। 1864 में उन्हें फिर गिरफ्तार किया गया। मध्यप्रदेश के असीरगढ़ किले में कठोर कैद में रखा गया। वहाँ 1884 में उनकी मृत्यु हुई। लेकिन उनकी गाथा खत्म नहीं हुई। आज ओडिशा के लोकगीतों में उनकी वीरता गूंजती है। जैसे, लोग गाते हैं, “वीर साय रे जाग रे, जंगल बसी राजा।” उनके नाम पर वीर सुरेंद्र साय यूनिवर्सिटी और झारसुगुड़ा हवाई अड्डा है। क्या तुम सोचते हो कि जंगल कमजोर होते हैं? सुरेंद्र ने साबित किया कि एकता और साहस से साम्राज्य हिल सकता है।
भारत के भूले हुए क्रांतिकारी | सुरेंद्र साय: संबलपुर के आदिवासी नायक
पीर अली खान: किताबों से भड़की क्रांति (1812-1857)
कभी पीर अली खान के बारे में सुना है? एक साधारण किताब बेचने वाला, जिसने 1857 में क्रांति की चिंगारी जलाई। पीर अली खान का जन्म 1812 में आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में हुआ। सात साल की उम्र में वे घर छोड़कर पटना पहुँचे। वहाँ एक दयालु जमींदार ने उन्हें अपनाया। फारसी, उर्दू और अरबी की तालीम दी। फिर, 20 साल की उम्र में पीर ने पटना के गुलजार बाग में किताबों की दुकान खोली। उनकी हस्तलिखित पांडुलिपियाँ विद्वानों को लुभाती थीं। लेकिन अंग्रेजों के जुल्म, भारी कर और भारतीय संस्कृति के अपमान ने उनका दिल बदल दिया।
इसलिए, पीर की दुकान किताबें बेचने के साथ-साथ वह क्रांतिकारियों की गुप्त सभा का अड्डा बन गई। 1857 में उन्होंने मौलवी मेंहदी के साथ मिलकर विद्रोह की योजना बनाई। दानापुर छावनी के सैनिकों को एकजुट किया। हथियारों की तस्करी की। 3 जुलाई 1857 को पीर ने 200 साथियों के साथ पटना में हमला बोला। ‘वंदे मातरम’ चिल्लाते हुए एक पादरी के घर पर कब्जा करने की कोशिश की। लेकिन अंग्रेजों ने जवाबी हमला किया। कई शहीद हुए। पीर पकड़े गए। यातना दी गई, पर उन्होंने साथियों का नाम नहीं बताया। उनकी आवाज गूंजी, “तुम मुझे हर दिन फाँसी दे सकते हो, पर मेरी जगह हजारों उठेंगे।”
7 जुलाई 1857 को पीर और 14 साथियों को गांधी मैदान के पास फाँसी दी गई। लेकिन उनकी चिंगारी ने 1857 की क्रांति को और भड़काया। आज पटना में शहीद पीर अली खान पार्क और एक सड़क उनके नाम पर है। पीर ने साबित किया कि शब्द हथियार बन सकते हैं। उनकी कहानी हमें बताती है कि साधारण लोग भी असाधारण बदलाव ला सकते हैं।
हसरत मोहानी: जिनकी शायरी में बस्ता था इंकलाब (1875-1951)
‘इंक़लाब ज़िंदाबाद!’
ये नारा आज भी रूह को झकझोर देता है।
कभी रैलियों में गूंजता है, कभी दीवारों पर लिखा मिलता है, और कभी फिल्मों में सुनाई देता है… पीढ़ी दर पीढ़ी जैसे कोई मशाल चलती आ रही हो।
अकसर लोग इसे शहीद भगत सिंह की आवाज़ से जोड़ते हैं… उस नौजवान क्रांतिकारी से जिसने इस नारे को अंग्रेज़ों की संसद तक पहुँचाया।
लेकिन क्या आप जानते हैं… ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ नारे की सबसे पहली आवाज़ कौन थी? भारत को यह नारा किसने दिया?
वो कोई बंदूक उठाने वाले क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि एक कलम उठाने वाले शायर थे।
एक ऐसे इंसान जो एक ही समय में विद्रोही भी थे और आध्यात्मिक भी, बेख़ौफ़ भी और नरमदिल भी। वो थे हसरत मोहानी! एक क्रांतिकारी और बाग़ी शायर, जिन्होंने 1921 में ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया।
हसरत मोहानी का जन्म 1875 में उत्तर प्रदेश के मोहान में हुआ। हसरत बचपन से बाग़ी थे। अलीगढ़ के मोहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज में पढ़े ( आज की अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी), पर अंग्रेजों के खिलाफ बोलने की वजह से तीन बार निकाले गए। फिर भी, 1903 में बीए किया। हसरत शायरी में माहिर थे। उनकी गजल ‘चुपके चुपके रात दिन’ आज भी गुलाम अली की आवाज में गूंजती है। लेकिन उनकी शायरी सिर्फ इश्क की नहीं थी। वो क्रांति की आवाज थी।
1903 में हसरत ने ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ मैगजीन शुरू की। जिसमें उन्होंने अंग्रेजों और मिस्र के अत्याचारों की आलोचना की। इसलिए, उन्हें जेल हुई। जेल में ‘मुशाहिदात-ए-जिंदान’ डायरी लिखी। 1921 में, जब कांग्रेस ‘डोमिनियन स्टेटस’ की बात करती थी, हसरत ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाया। उन्होंने पूर्ण स्वराज की मांग की। 1929 भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेम्बली में बम फेंकते हुए ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा लगाया, तो ये नारा हर उस क्रांतिकारी, हर उस इंसान के लिए मशाल बन गया, जो भारत की संपूर्ण स्वतंत्रता चाहते थे।
हसरत सूफी थे, कृष्ण भक्त भी। हमेशा बंटवारे के खिलाफ रहे। कभी पाकिस्तान नहीं गए।
1925 में उन्होंने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में मदद की। 1951 में उनका निधन हो गया। लेकिन उनका नारा आज भी गूंजता है। हसरत ने दिखाया कि शब्दों कितनी ताकत होती है। एक शायरी भी क्रांति जन्म ले सकती है।
इंक़लाब ज़िंदाबाद! भारत के मशहूर क्रांतिकारी नारे के पीछे छिपा हुआ बाग़ी शायर
कनकलता बरुआ: असम की नन्ही शेरनी (1924-1942)
चलिए, अब बात करते हैं एक 17 साल की लड़की के बारे में, जिसने 1942 में इतिहास रच दिया। कनकलता बरुआ—असम की सबसे छोटी क्रांतिकारी। कनकलता का जन्म 1924 में असम के बोरंगबारी में हुआ। पाँच साल की उम्र में ही माँ के देहांत हो गया। और 13 साल की उम्र में पिता का। कनकलता तीसरी कक्षा तक पढ़ीं, फिर परिवार संभाला। गांधीजी के विचारों ने उन्हें भारत की आजादी का रास्ता दिखाया। उनके चाचा, देवेंद्र नाथ बोरा, कांग्रेस से जुड़े थे। इसलिए, कनकलता आजादी की फुसफुसाहटों से प्रेरित हुईं।
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ। ‘मृत्यु बाहिनी’ संगठन में जुड़ने की उम्र थी 18 साल। लेकिन उनके साहस ने सबको प्रभावित किया, और कनकलता ‘मृत्यु बाहिनी’ संगठन से जुड़ गईं। 20 सितंबर 1942 को गोहपुर थाने पर तिरंगा फहराने निकलीं। निहत्थे ग्रामीणों के साथ आगे बढ़ीं। पुलिस ने चेतावनी दी, पर वे नहीं रुकीं। गोली लगी, लेकिन तिरंगा नहीं गिराने दिया। साथी मुकुंद काकोटी ने तिरंगे को थामा, और वो भी शहीद हो गए। फिर भी, उस दिन तिरंगा लहराया। कनकलता ने कहा, “देश के लिए मरूँ, तो गर्व होगा।”
आज उनके नाम पर भारतीय तटरक्षक का जहाज, गौरीपुर में मूर्ति, और तेजपुर में कनकलता उद्यान है। कनकलता ने साबित किया कि छोटी उम्र में भी बड़ा बदलाव आ सकता है। उम्र कभी भी साहस को नहीं रोक सकती।
भारत के भूले हुए क्रांतिकारी | कनकलता बरुआ: असम की युवा शहीद
इन चारों का संदेश: युवाओं के लिए सबक
सोचो, इन चारों में क्या एक जैसा है? सुरेंद्र ने जंगलों से, पीर ने किताबों से, हसरत ने शायरी से, और कनकलता ने साहस से क्रांति लाई। लेकिन सबने एकजुट होकर लड़ा। भारत के भूले हुए क्रांतिकारी हमें सिखाते हैं कि विविधता में ताकत है। इन अज्ञात नायकों का साहस बताता है कि साधारण लोग भी असाधारण काम कर सकते हैं। जैसे वे जुल्म के खिलाफ खड़े हुए, वैसे तुम अन्याय रोकना। और हाँ, देशभक्ति नारे नहीं, कर्म है। इनकी कहानियाँ बताती हैं कि छोटे कदम भी बड़े बदलाव लाते हैं।
आजादी की कीमत याद रखो
भारत के भूले हुए क्रांतिकारी सिर्फ कहानियाँ नहीं, बल्कि आजादी की नींव हैं। क्या तुम महसूस करते हो उनके बलिदान का वजन? सुरेंद्र की तलवार, पीर की किताबें, हसरत का नारा, और कनकलता का तिरंगा—सबने भारत को आजाद कराया। फिर भी, ये नाम इतिहास में गुम हैं। लेकिन हमें इन्हें याद रखना होगा। 15 अगस्त का जश्न तब सच्चा होगा, जब इन अज्ञात नायकों को सम्मान देंगे। भारतीय स्वतंत्रता इतिहास के इन वीरों को सलाम। जय हिंद!