“यह पाकिस्तान है। यू कॅन ट्र्स्ट नो वन।”
द डिप्लोमैट में ऐसे तीन-चार दमदार संवाद हैं। ये फिल्म बिना ज्यादा उम्मीदों के देखने पर आपको जरूर चौंकाएगी।
कहानी कुछ ऐसी है: साल है 2017। जे. पी. सिंह इस्लामाबाद स्थित भारतीय दूतावास के अधिकारी हैं। एक दिन, घबराई हुई उज्मा अहमद दूतावास के एक अधिकारी के सामने पेश होती है, गिड़गिड़ाकर कहती है, “मैं भारतीय हूं। मुझे धोखे से फंसा लिया गया। पाकिस्तान में नारकीय हालात में रखा गया। जबरन निकाह कराया गया है। प्लीज, मेरी मदद कीजिए!”
मामला जे. पी. सिंह तक पहुंचता है। उनके दिमाग में स्वाभाविक सवाल उठते हैं—क्या मुस्लिम उज्मा वाकई भारतीय है? या फिर वह पाकिस्तानी है? उसे शरण देना कहीं जोखिम भरा तो नहीं होगा? शुरुआती जांच के बाद सिंह जोखिम उठाते हैं। उज्मा को दूतावास में शरण देते हैं। धीरे-धीरे सच्चाई सामने आती है…
मलेशिया में अपने रिश्तेदारों से मिलने गई उज्मा की मुलाकात पाकिस्तानी टैक्सी ड्राइवर ताहिर से होती है। ताहिर उसे प्रभावित करता है। उसे यकीन दिलाता है कि उसकी थैलेसीमिया से पीड़ित बेटी नूर पाकिस्तान में प्राकृतिक चिकित्सा से ठीक हो सकती है। बेटी की खातिर उज्मा पाकिस्तान के लिए टूरिस्ट वीजा पर निकल पड़ती है। वहां पहुंचते ही ताहिर उसे खैबर पख्तूनख्वा ले जाता है, एक ऐसा इलाका जहां खुद पाकिस्तान के अन्य प्रांतों के लोग भी जाने से कतराते हैं।
एक बार वहां पहुंचने के बाद, उज्मा के सामने ताहिर का असली चेहरा आ जाता है।
ताहिर धूर्त और निर्दयी इंसान है। वह महिलाओं को धोखा देकर शादी करने के लिए मजबूर करता है। उन्हें कैद में रखता है। यहां तक कि उन्हें बेच भी देता है। उज्मा के साथ भी यही होता है। अपनी सूझबूझ से किसी तरह वह भारतीय दूतावास पहुंचती है, आखिरी उम्मीद के साथ कि दूतावास के लोग उसे भारत वापस भेजने का कोई न कोई तरीका निकाल ले।
बिना अनावश्यक नाटकीयता के द डिप्लोमैट धीमी लेकिन प्रभावी ढंग से आगे बढ़ती है। उज्मा, जे. पी. सिंह और ताहिर कहानी के केंद्र में बने रहते हैं। भारत-पाकिस्तान के तनावपूर्ण रिश्तों से हर कोई परिचित है। भारतीय नागरिकों को पाकिस्तान के कानूनों का सख्ती से पालन करना होता है। कोई भी चूक घातक हो सकती है। फिल्म इन नियमों को भी दिखाती है। उज्मा के पास सिर्फ एक महीने का वीजा था, जिसमें तीन हफ्ते ही बचे है। उसे इस समय के भीतर भारत वापस भेजना जरूरी है, वरना अंजाम गंभीर हो सकते हैं।
ताहिर और उसके साथी आतंकवादियों से कम नहीं। उनके गांव में बच्चे तक बंदूकें लेकर घूमते हैं। मध्यांतर पर दिखाया गया है कि एक बच्चा निर्दयता से उस महिला की हत्या कर देता है, जिसने उज्मा की मदद की थी। वहां महिलाएं सिर्फ वस्तु की तरह हैं, जिन्हें गुलामों की तरह रखा जाता है।
जे. पी. सिंह सहायता के लिए भारतीय विदेश मंत्रालय से संपर्क करते हैं। तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज उज्मा की सुरक्षित वापसी के लिए पूरी ताकत लगा देती हैं। हालांकि, अंततः फैसला पाकिस्तान की अदालत के हाथ में है। और, कोर्ट का फैसला उज्मा के पक्ष में आ जाए तो भी, उसे ताहिर और उसके साथियों से बचाकर, वाघा-अटारी बॉर्डर पार करा के भारत वापस भेजना होगा।
बिना किसी तेज-तर्रार एक्शन सिक्वेंस के भी द डिप्लोमैट बांधे रखती है। कहानी रोमांचक ढंग से आगे बढ़ती है। जे. पी. सिंह की दृढ़ता, उज्मा की दर्दनाक दास्तान और पाकिस्तान के हालात को बारीकी से दिखाया गया है। सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म अंत तक दर्शकों को जोड़े रखती है। इसमें न तो कोई गाना है और न ही फालतू के मसाले। कुछ दृश्य दिल को छू जाने वाले हैं।
क्लाइमेक्स से पहले एक भावुक दृश्य में सुषमा स्वराज उज्मा से कहती हैं, “तुम भारत की बेटी हो।” आखिरी क्षणों में उज्मा की वाघा बॉर्डर तक की यात्रा नाटकीय लेकिन प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत की गई है। इस तरह की पेशकश हमारी फिल्मों में कम देखने मिलती है।
अगर इस फिल्म में कोई बड़ा स्टार होता, तो इसकी ओपनिंग और बॉक्स ऑफिस कलेक्शन अलग स्तर पर होते। इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं करना कि जॉन अब्राहम यहां मिसफिट हैं। बल्कि, ऐसे किरदार उनके व्यक्तित्व पर पूरी तरह फिट बैठते हैं।
रितेश शाह लिखित द डिप्लोमैट जेए एंटरटेनमेंट, वकाऊ फिल्म्स (विपुल डी. शाह, ऑप्टिमिस्टिक्स फेम), टी-सीरीज, सीता फिल्म्स और फॉर्च्यून पिक्चर्स के बैनर तले बनी है। संगीत मनन भारद्वाज और ईशान छाबड़ा ने तैयार किया है। लेखन, प्रोडक्शन और संगीत—तीनों ही कहानी के अनुरूप हैं। कुनाल वाल्वे की एडिटिंग एकदम सहज है। फिल्म को पाकिस्तान-विरोधी प्रोपेगेंडा के रूप में इस्तेमाल नहीं किया गया है। हां, कुछ संवाद तीखे जरूर हैं, लेकिन वे परिस्थितिजन्य, संक्षिप्त और प्रभावशाली हैं।
अभिनय की बात करें तो, जॉन अब्राहम जे. पी. सिंह के किरदार में पूरी तरह फिट बैठते हैं। सादिया खतीब ने उज्मा के रूप में बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है। जगजीत संधू ताहिर के रोल में प्रभावी हैं। राज़ी फेम अश्वत भट्ट ने पाकिस्तानी आईएसआई अधिकारी मलिक का किरदार सटीक तरीके से निभाया है। सुषमा स्वराज के रूप में रेवती दमदार हैं। कुमुद मिश्रा दूतावास के वकील सईद और शारिब हाशमी स्टाफ मेंबर तिवारी के किरदार में उचित हैं।
पिछले साल, जॉन अब्राहम ने वेदा बनाई थी—राजस्थान में जातिगत भेदभाव और एक दलित लड़की की बॉक्सिंग की महत्वाकांक्षा पर बनी वो एक औसत फिल्म रही थी। अगर विषय को बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया जाता, तो वह भी असर छोड़ सकती थी। द डिप्लोमैट विषय के चुनाव के मामले में एक कदम आगे है। शुक्र है कि इसमें वेदा जैसी कमजोरियां नहीं हैं। फिल्म के देखने लिए खर्चे जाने वाले 137 मिनट यहां बर्बाद नहीं होते।
दिलचस्प बात यह है कि फिल्म की शुरुआत में एक असामान्य रूप से विस्तृत डिस्क्लेमर दिखाया गया है—सिर्फ टेक्स्ट में नहीं, बल्कि नैरेशन के साथ भी। ऐसा भी फिल्मों में कम ही देखने को मिलता है।कुल मिलाकर, जॉन की फिल्में आमतौर पर उनके फैनबेस के बाहर तुरंत दर्शक नहीं खींचतीं—जब तक कि वह पठान जैसी न हो। लेकिन द डिप्लोमैट उनके चाहकों को ही नहीं, आम दर्शकों के लिए भी देखने लायक है। इसकी बारीकी, दमदार कहानी और प्रभावी परफॉर्मेंस इसे बेहतरीन थ्रिलर बनाते हैं। खासतौर पर शहरी दर्शकों को यह पसंद आएगी। इसे मिस न करें!
द डिप्लोमैट
निर्माता: जॉन अब्राहम, राजेश बहल, राकेश डांग, समीर दीक्षित, भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, विपुल डी. शाह, अश्विन वर्दे, जतिश वर्मा
निर्देशक: शिवम नायर
संगीत: मनन भारद्वाज, ईशान छाबड़ा
बैनर: जे. ए. एंटरटेनमेंट, टी-सीरीज, वकाऊ फिल्म्स, सीता फिल्म्स, फॉर्च्यून पिक्चर्स
रेटिंग: 3.5 स्टार