आत्मनिर्भर भारत सिर्फ़ एक सरकारी नारा नहीं है, बल्कि यह हर भारतीय की उम्मीद और सपना है। ‘मेक इन इंडिया’ का मतलब है कि हम दूसरों पर निर्भर न रहकर खुद अपने पैरों पर खड़े हों, चाहे वह चिप्स बनाने की बात हो, जहाज़ बनाने की हो या लड़ाकू विमानों की। महामारी ने हमें यह दिखाया कि जब दुनिया की सप्लाई चेन टूटती है, तो हम कितने असहाय हो जाते हैं। यही कारण है कि आज सरकार और जनता दोनों इस दिशा में गंभीर हैं।
सरकार ने हाल ही में एक बड़ा कदम उठाया है। सेमीकंडक्टर मिशन के लिए करोड़ों रूपए का पैकेज मंज़ूर किया गया है, ताकि चिप निर्माण भारत में ही हो सके। कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियाँ भी भारत में निर्माण इकाइयों की तैयारी कर रही हैं। देश में पहले से ही मोबाइल असेंबली प्लांट और कुछ बड़े फैक्ट्री काम कर रही हैं। रक्षा क्षेत्र में ‘मेड इन इंडिया’ को बढ़ावा दिया जा रहा है। तटीय इलाकों में शिपयार्ड के लिए विशेष योजनाएँ बनाई जा रही हैं, ताकि वहाँ के लोगों को रोज़गार और स्थिरता मिले।
लेकिन चुनौतियाँ भी बड़ी हैं। फैक्ट्री लगाने के लिए भारी पूँजी चाहिए। ज़मीन, नियम और प्रक्रियाओं की जटिलताएँ निवेशकों को रोकती हैं। सबसे बड़ी कमी है कुशल और प्रशिक्षित मानव संसाधन की। हमारी आबादी बड़ी है, लेकिन उच्च तकनीक वाले उद्योग के लिए आवश्यक प्रशिक्षण हर किसी के पास नहीं है। इसके साथ ही, वियतनाम, मेक्सिको और इंडोनेशिया जैसे देश भी खुद को दुनिया के नए निर्माण केंद्र के रूप में पेश कर रहे हैं, जबकि चीन पहले से ही इस क्षेत्र में सबसे बड़ा खिलाड़ी है।
फिर भी तस्वीर निराशाजनक नहीं है। गुजरात के किसी युवा इंजीनियरिंग ग्रैजुएट के लिए एक सेमीकंडक्टर प्लांट में नौकरी का मतलब उसकी पूरी ज़िंदगी बदलना हो सकता है। तमिलनाडु के तटीय गाँव में नया शिपयार्ड खुलने से वहाँ के परिवारों को स्थिर रोज़गार मिलेगा। छोटे व्यापारी और स्टार्टअप्स नई सप्लाई चेन में शामिल होकर तरक्की कर सकते हैं। यही इस अभियान का असली मक़सद है—हर भारतीय को आत्मविश्वास देना कि हम भी कर सकते हैं।
सरकार लगातार यह संदेश दे रही है कि आत्मनिर्भरता कोई असंभव सपना नहीं है। प्रधानमंत्री और मंत्रीमंडल बार-बार कह रहे हैं कि आने वाला दशक भारत के लिए निर्णायक होगा। नीतियों को सरल और स्थिर बनाने के प्रयास जारी हैं। कौशल विकास के लिए नए कार्यक्रम लाए जा रहे हैं ताकि आने वाली पीढ़ी केवल डिग्रीधारी न रहे, बल्कि असली हुनरमंद बने। आत्मनिर्भरता का मतलब दुनिया से दरवाज़े बंद करना नहीं, बल्कि खुद को इतना मज़बूत बनाना है कि कोई संकट हमें हिला न सके।
देशवाले की और से करिश्मा खानने इस बदलाव के बारे में कई प्रतिष्ठित लोगों से बातचीत की।
राजेश वाजा, जो एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में सीनियर पत्रकार हैं वह कहते हैं, “मुझे लगता है कि पिछले कुछ वर्षों में भारत ने आत्मनिर्भरता की दिशा में काफी प्रगति की है। युद्ध के हथियारों से लेकर आधुनिक तकनीकों और रोज़मर्रा की ज़रूरतों तक, घरेलू उत्पादन में लगातार बढ़ोतरी हुई है। लोगों का रुझान अब स्वदेशी उत्पादों की ओर तेजी से बढ़ रहा है। इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल भी अब तेजी से बढ़ रहा है, जो साफ़ संकेत है कि हम आयातित ईंधन पर निर्भरता कम कर रहे हैं। इससे देश का विदेशी मुद्रा भंडार बचाने में मदद मिलेगी और इसका सकारात्मक असर आने वाले कुछ वर्षों में दिखाई देगा।”
इस बारे में हमने फ्रीलांस लेखक और अनुवादक श्रुति मुर्कुटकर से बात की, वह आर्ट और क्राफ्ट सेशन्स भी आयोजित करती हैं। उनका कहना है कि “ग्लोबल टू लोकल होना अपने आप में एक उपलब्धि है| हमारे आत्मनिर्भर होने पर शत प्रतिशत बतौर देशवासी हमारा ही फायदा होगा| टेक्स कम होगा | जैसे की अगर हम लोकल दवाईयां लेंगे तो महिने के बजेट में बचत के जरीये खुलेंगे ।”
भारत अब दुनिया के सामने यह साबित करने का अवसर पा रहा है कि वह किसी से कम नहीं। सवाल सिर्फ यह है कि क्या हम इस मौके को सही तरह से पकड़ पाएँगे। अगर नीतियों में स्थिरता, शिक्षा और कौशल में निवेश और जनता का आत्मविश्वास—ये सब एक साथ आएँ, तो यह सपना सिर्फ़ नारा नहीं रहेगा, बल्कि इतिहास बन जाएगा। और वह दिन दूर नहीं जब सच में कहा जाएगा—भारत ने चिप्स से लेकर जहाज़ तक, सब कुछ खुद बना दिखाया।
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